बिलासपुर(अरविन्द तिवारी) – आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी यानि आज पड़ने वाली एकादशी को देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा इस एकादशी को आषाढ़ी एकादशी , पद्मा एकादशी , हरिशयनी एकादशी भी कहते हैं। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि देवशयनी एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा करने का विशेष महत्व है , क्योंकि एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन शालिग्राम की पूजा करना भी शुभ माना जाता है। इस दिन दान करने का भी विशेष महत्व है। इस दिन पीली वस्तु दान करना या लक्ष्मी-नारायण के मंदिर में तुलसी के पौधे का दान करना भी शुभ माना जाता है। इसके अलावा केले के वृक्ष की पूजा करना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। देवशयनी एकादशी के दिन ऊं नमो भगवते वासुदेवाय नम: मंत्र का जाप करें या विष्णु सहस्त्र नामावली के अतिरिक्त विष्णु चालीसा का पाठ करें। विष्णु पुराण में इस एकादशी का काफी महत्व बताया गया है। मान्यता है कि इस एकादशी का व्रत करने वाले लोगों को सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है , उनकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती है और मृत्यु के बाद उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी दिन से चातुर्मास भी प्रारंभ हो जाते हैं , इन दिनों तपस्वी भ्रमण नही करते बल्कि वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या (चातुर्मास) करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है , क्योंकि इन दिनों भूमंडल के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस रात्रि से भगवान विष्णु विश्राम अवस्था में चले जाते हैं , इसके बाद देवोत्थान एकादशी (14 नवंबर 2021) को भगवान का शयन काल समाप्त होता है। श्रुतिस्मृति पुराणों के अनुसार इस दिन से भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं , जबकि कहीं – कहीं इस अवधि में भगवान विष्णु के पाताल के राजा बलि के यहां निवास करने की बातें आती हैं। भगवान विष्णु के शयनकाल के दौरान शादी-विवाह , नामकरण , जनेऊ , गृहप्रवेश जैसे समस्त प्रकार के मांगलिक कार्यों पर रोक लग जाती है और देवउठनी एकादशी से सभी मांगलिक कार्य फिर से आरंभ हो जाते हैं। भगवान विष्णु के विश्राम करने से सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। चातुर्मास में भगवान शिव जगत के संचालक और संहारक दोनो की भूमिका में होते हैं , चातुर्मास में भगवान शिव और उनके परिवार की पूजा होती है। आषाढ़ महीने की पहली एकादशी को योगिनी और अंतिम एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इस साल देवशयनी एकादशी के दिन दो शुभ संयोग बन रहे हैं। इन शुभ संयोग के बनने से एकादशी का महत्व और बढ़ रहा है। इस साल देवशयनी एकादशी के दिन शुक्ल और ब्रह्म योग बन रहा है। ज्योतिष शास्त्र में इन योग को शुभ योगों में गिना जाता है। इस दौरान किये गये कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इन योग में किये गये कार्य से मान सम्मान की प्राप्ति होती है।
भगवान की शयनावस्था का कारण
वामन पुराण में बताया गया है कि एक बार राजा बलि ने अपने बल के प्रयोग से तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया था। यह देखकर इंद्र देवता समेत अन्य देवता घबरा गये और श्रीहरि की शरण में पहुंचे। देवताओं को परेशान देखकर भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गये। राजा बलि ने वामन देवता से कहा कि जो मांगना चाहते हैं मांग लीजिये। इस पर वामन देवता ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली। वामन देवता ने अपने पहले और दूसरे पग क्रमश: धरती और आकाश को नाप लिया। अब तीसरे पग के लिये कुछ नहीं बचा तो राजा बलि ने अपना सिर आगे कर दिया।भगवान यह देखकर राजा बलि से बेहद प्रसन्न हुये और उनसे वरदान मांगने को कहा। बलि ने उनसे वरदान में पाताल लोक में बस जाने की बात कही। बलि की बात मानकर उनको पाताल में जाना पड़ा। ऐसा करने से समस्त देवता और मां लक्ष्मी परेशान हो गये। अपने पति विष्णुजी को वापस लाने के लिये मां लक्ष्मी गरीब स्त्री के भेष में राजा बलि के पास पहुंची , उन्हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी और उपहार के रूप में विष्णुजी को पाताल लोक से वापस ले जाने का वरदान ले लिया। मां लक्ष्मी के साथ वापस जाते हुये श्रीहरि ने राजा बलि को वर दिया है वे प्रत्येक वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास की एकादशी तक पाताल में ही निवास करेंगे और इन चार महीने की अवधि को उनकी योगनिद्रा माना जायेगा। यही वजह है कि दीपावली पर मां लक्ष्मी की पूजा भगवान विष्णु के बिना ही की जाती है। वहीं एक अन्य पौराणिक कथा में बताया गया है कि एक बार शंखचूर नामक राक्षस से भगवान विष्णु का काफी लंबा युद्ध चला और अंत में असुर मारा गया। युद्ध करते-करते भगवान विष्णु थक गये और शिवजी को सृष्टि का काम सौंपकर योगनिद्रा में चले गये। इसलिये इन चार महीनों में भगवान ही विष्णुजी का काम देखते हैं और यही वजह है सावन में शिवजी की विशेष रूप से पूजा की जाती है।