रायपुर. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव-2023 को लेकर हमारी स्पेशल रिपोर्ट की ये 9वीं कड़ी है. इस श्रृंखला में दल बदलने वाले शीर्ष नेताओं की कहानी भी आप पढ़ रहे हैं. पार्टी छोड़ने और नई पार्टी से जुड़ने वाले नेताओं की सफलता और विफलता पर आधारित यह दूसरी स्टोरी है. यह कहानी देश की राजनीति में महानायक रहे उस नेता की है, जो पृथक छत्तीसगढ़ में नायक नहीं बन पाए थे.विद्याचरण शुक्ल ‘विद्या भैय्या’ देश की राजनीति में तूती बोलती रही, लेकिन पृथक छत्तीसगढ़ की राजनीति में नेता जी कामयाब नहीं हो पाए. दल बदलते रहे, पार्टी छोड़ते रहे, शिखर पर भी रहे, पर जब घर वापसी हुई, तो ताकतवर नहीं रहे. बात स्व. विद्याचरण शुक्ल की हो रही है. जिन्हें प्यार से छत्तीसगढ़ के लोग ‘विद्या भैय्या’ कहते हैं.
विद्या भैय्या का जन्म 2 अगस्त 1929 को रायपुर में हुआ. उनके पिता पंडित रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे थे. जबकि बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल भी अविभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे. इस तरह राजनीतिक विरासत शुक्ल को घर पर मिली थी. उन्होने राजीतिक जीवन की शुरुआत लोकसभा चुनाव से की थी. कांग्रेस पार्टी से 1957 में महासमुंद से लोकसभा चुनाव जीते और सबसे कम उम्र के युवा सांसद बने थे. स्व. शुक्ल छत्तीसगढ़ के संसदीय इतिहास में 9 बार लोकसभा चुनाव जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाले नेता रहे. उनका यह रिकॉर्ड आज भी कायम है. केंद्र में गृह, रक्षा, वित्त, योजना, सूचना एवं प्रसारण, विदेश समेत अन्य मंत्री भी रहे.
कांग्रेस छोड़ जनमोर्चा से जुड़े
देश में आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी को करारी हार मिली थी. इंदिरा सरकार के जाने के बाद वीसी शुक्ल कांग्रेस के साथ नहीं रहे. उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. वे कांग्रेस छोड़ 80 के दशक में जनमोर्चा से जुड़ गए. उन्होने विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ मिलकर ‘जनता दल’ बनाया. 1989-90 में वीपी सिंह की नेशनल फ्रंट सरकार एक बार फिर केंद्रीय मंत्री बने. हालांकि सरकार अधिक दिनों तक चली नहीं. विद्या भैय्या भी वीपी सिंह के साथ टिके नहीं.
एक और नेता, एक और पार्टी
1990 में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद विद्या भैय्या ने फिर पाला बदला और वे समाजवादी जनता पार्टी में चले गए. यहाँ उन्होने चंद्रशेखर के साथ केंद्र में सरकार बनाई और कुछ महीनों तक मंत्री रहे.
कांग्रेस में हुई वापसी
कांग्रेस छोड़ने के बाद वीपी सिंह और चंद्रशेखर की पार्टी में जाने के बाद विद्या भैय्या की कांग्रेस में वापसी पीवी नरसिम्हा राव सरकार के दौरान हुई. कई वर्षों तक कांग्रेस से दूर रहने के बाद 90 के दशक में वे कांग्रेस में लौटे राव सरकार में संसदीय मामले और जल संसाधन जैसे विभाग के मंत्री रहे.
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य
2000 में जब मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तो विद्या भैय्या इसके नायक बनना चाहते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कांग्रेस पार्टी ने गांधी परिवार के बेहद करीबी हो चुके नेता अजीत जोगी को मुख्यमंत्री बना दिया. विद्या भैय्या राष्ट्रीय नेतृत्व के इस फैसले बेहद नाराज हुए. उन्होने अपनी नाराजगी राज्य लेकर दिल्ली तक बहुत ही तल्खी के साथ जाहिर की. उनके साथी और पार्टी के दिग्गज नेताओं ने उन्हें मनाने की कोशिशें की. लेकिन सब नाकामयाब रहे. करीब दो साल तक पार्टी के अंदर खींचतान चलते रहा.
एनसीपी के साथ, कांग्रेस की हार
कांग्रेस से नाराज चल रहे वीसी शुक्ल ने आखिरकार 2003 में पार्टी छोड़ दी. यह दूसरा मौका था जब वे कांग्रेस से अलग हुए थे. 2003 विधानसभा चुनाव के पहले शरद पवार की पार्टी एनसीपी से जुड़ गए. उन्होने पूरे दम-खम के साथ 90 में से 89 सीटों पर एनसीपी को चुनाव लड़वाया. दर्जनों सीटों पर कांग्रेस से नाराज नेताओं को टिकट दी. हालांकि कामयाबी सिर्फ एक सीट पर मिली. नोबेल वर्मा एनसीपी की टिकट पर चंद्रपुर से विधायक बनने में सफल हुए थे. भले विद्या भैय्या को अपनी पार्टी के जरिए एक सीट पर सफलता मिली थी, लेकिन उन्होने कांग्रेस के कई सीटों पर समीकरण बिगाड़ दिए थे. 2003 के चुनाव में भाजपा 39.26 प्रतिशत, कांग्रेस 36.71 प्रतिशत और एनसीपी को 7.9 प्रतिशत वोट मिले थे. इस तरह कांग्रेस सरकार बनाने से वंचित रह गई थी.
शायद ये सबसे बड़ी गलती थी
2003 के चुनाव में मिली विफलता के बाद विद्या भैय्या ने शरद पवार का साथ छोड़ दिया. उनका मन अब छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी दल भाजपा से लग गया था. उन्होने 2004 लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा प्रवेश कर लिया. दल-बदल की राजनीति के बीच में शायद ये उनकी ये सबसे बड़ी गलती थी. क्योंकि एनसीपी को छोड़ कांग्रेस में लौटे होते तो शायद वापस केंद्र की राजनीति में रहे होते.2004 लोकसभा में भाजपा ने उन्हे उसी महासमुंद संसदीय सीट टिकट दी, जहाँ से पहले 7 बार चुनाव जीत चुके थे. विद्या भैय्या को पूर्ण विश्वास था कि विफलताओं के इस दौर में यहाँ सफलता जरूर मिलेगी. हालांकि ऐसा हो नहीं पाया. नियति देखिए. जिस अजीत जोगी के मुख्यमंत्री से बनने नाराज होकर उन्होने कांग्रेस पार्टी छोड़ी थी, कांग्रेस ने उसी अजीत जोगी को महासमुंद से विद्या भैय्या के खिलाफ उतारा था. 2003 के चुनाव में हारे हुए दोनों दिग्गजों के बीच मुकाबला और देश भर की निगाहें इसी सीट पर थी. परिणाम जब आया तो सब हैरान थे. इस वजह से नहीं कि अजीत जोगी चुनाव जीत गए. हैरानी इस बात को लेकर थी कि विद्या भैय्या 1 लाख से अधिक मतों से चुनाव हार गए. विद्या भैय्या के लिए दुखद यह भी रहा कि केंद्र में सरकार तब कांग्रेस की बन गई थी. भाजपा की बनती तो केंद्र की राजनीति में जाने की संभावना हार के बाद भी बनी रहती, क्योंकि राज्य में उनके लिए कुछ पाने को था नहीं.
दूसरी बार घर वापसी
चुनाव हारने के बाद उन्हें लगने लगा था कि भाजपा में कद अनुरूप सम्मान नहीं मिल रहा. लिहाजा 2006 में पुनः कांग्रेस में लौट आए. कांग्रेस में दूसरी बार उनकी घर वापसी थी. हालांकि यहाँ भी आने के बाद स्व. शुक्ल के लिए करने के लिए कुछ खास था नहीं. चाहकर भी दोबारा वे केंद्र की राजनीति में लौट नहीं पाए. इधर छत्तीसगढ़ में भाजपा का कमल खिलना जारी रहा. और विद्या भैय्या का राजनीति में धीरे-धीरे मुरझाना.
परिवर्तन यात्रा अंतिम यात्रा साबित हुई
ये और बात थी कि जीवन के अंतिम पड़ाव तक राजनीति में किसी जवान नेता की तरह ही सक्रिय रहे. 2013 विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस राज्य भर में परिवर्तन यात्रा निकाल रही थी. इस यात्रा में उनकी भागीदारी जोर-शोर से रही. नक्सलियों के हिट लिस्ट में होने के बाद भी उन्होने बस्तर में आयोजित यात्रा में हिस्सा लिया था. उनके लिए यह यात्रा उनके जीवन की अंतिम यात्रा साबित हुई. झीरम नक्सल घटना में बुरी तरह घायल हुए और अस्पताल में लंबे समय तक मृत्यु से लड़ते हुए जीवन हार गए. इस तरह से देश की राजनीति में महानायक रहने वाले विद्याचरण शुक्ल पृथक छत्तीसगढ़ में कभी राजनीति के नायक नहीं बन पाए.