मुंबई/ साउथ मुंबई के पॉश इलाके महालक्ष्मी रेस कोर्स में टेंट का एक शहर बनाया गया था। 10 नवंबर 1995 से यहां BJP का तीन दिवसीय महाधिवेशन ‘यशोभूमि’ का आयोजन होना था। इसमें भाग लेने के लिए BJP के करीब सवा लाख कार्यकर्ता मुंबई पहुंचे थे। चारों तरफ लालकृष्ण आडवाणी के बड़े-बड़े कटआउट लगे थे। आडवाणी पिछले एक दशक से पार्टी के अध्यक्ष थे। उनकी रथयात्रा ने BJP को हिंदुत्व के रूप में नई संजीवनी दी थी। RSS भी आडवाणी से बहुत खुश था। सब जानते थे कि अगले चुनाव में आडवाणी ही PM पद के प्रत्याशी होंगे। विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी द बीजेपी बिफोर मोदी’ में लिखते हैं कि जब RSS ने 1986 में अटल बिहारी वाजपेयी को लीडरशिप से हटाया, तब से वे घर में झींगा और शराब युक्त शामों को ज्यादा तरजीह देने लगे थे। उल्लेख एनपी अपनी किताब ‘वाजपेयी एक राजनेता के अज्ञात पहलू’ में लिखते हैं कि महाधिवेशन के आखिरी दिन, यानी 12 नवंबर की शाम सभी प्रतिनिधि अपने अध्यक्ष को सुनने के लिए आतुर थे। आडवाणी ने अपने भाषण में कहा- 1996 के लोकसभा चुनाव हम अटल बिहारी वाजपेयी की लीडरशिप में लड़ेंगे। वे ही हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
ये सुनकर ही पूरे पंडाल में कुछ क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। वहां मौजूद बहुत कम लोगों को ऐसी किसी घोषणा की उम्मीद थी। तभी सन्नाटे को तोड़ते हुए किसी ने जोर से नारा लगाया- अबकी बारी अटल बिहारी। पूरा पंडाल इस नारे से गूंज उठा।
‘पीएम इन वेटिंग’ सीरीज के आठवें एपिसोड में लालकृष्ण आडवाणी के किस्से। PM पद के लिए वो पहले वाजपेयी और फिर मोदी से कैसे पीछे रह गए…
आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को कराची, पाकिस्तान में हुआ था। इस तस्वीर में आडवाणी पिता किशनचंद, मां ग्यानी देवी और छोटी बहन शीला के साथ हैं।
कराची में जन्मे आडवाणी, भारत आकर 14 साल की उम्र में संघ जॉइन किया
8 नवंबर 1927 को सिंध प्रांत के कराची शहर में लालकृष्ण आडवाणी का जन्म हुआ। उनके जन्म से दो साल पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी। आडवाणी अपनी जीवनी ‘माय कंट्री माय लाइफ’ में लिखते हैं कि मेरे मैट्रिकुलेशन करने के बाद मेरे पिता कराची से हैदराबाद (सिंध) आ गए थे।
कॉलेज में प्रवेश लेने से पहले गर्मी की छट्टियों में मैंने टेनिस खेलना शुरू कर दिया था। टेनिस कोर्ट में मेरे रेगुलर पार्टनर में से एक मेरा दोस्त मुरली मुखी था, जो मेरी तरह करीब 14 साल का था। एक दिन ठीक खेल के बीच वह बोला, ‘मैं जा रहा हूं।’
मैंने पूछा कहां जा रहे हो, अभी तो और खेलेंगे। उसने जवाब दिया कुछ दिन पहले ही मैं RSS का स्वयंसेवक बन गया हूं। मैं शाखा में देर से नहीं पहुंच सकता, क्योंकि उस संगठन में समय की बड़ी पाबंदी होती है।
आडवाणी लिखते हैं कि ‘मैंने मुरली से ही पहली बार संघ का नाम सुना था। मैंने उससे पूछा ‘संगठन’ क्या चीज है। उसने कहा- तुम मेरे साथ शाखा चलो समझ जाओगे। दो दिन बाद मैं उसके साथ शाखा गया।
उन दिनों सिंध में मार्शल ला लगा होने के कारण सार्वजनिक स्थान पर शाखा नहीं लग सकती थी। इस कारण हम एक बंगले की छत पर गए। यह बंगला संघ के स्वयंसेवक राम कृपलाणी का था। अंत में हमने पंक्तिबद्ध होकर सावधान की मुद्रा में मातृभूमि की वंदना हेतु संघ प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का गायन किया।’
पहली नौकरी संघ के ‘ऑर्गेनाइजर’ में की, पगार 350 रुपए थी
आडवाणी का परिवार बंटवारे के बाद कराची से कच्छ में आकर रहने लगा था। उनके पिता कांडला के पास आदीपुर में सिंधु रीसेटलमेंट कॉर्पोरेशन में काम करते थे। अब वे रिटायर होने वाले थे। उनके बाद परिवार की जिम्मेदारी आडवाणी पर थी।
संघ में काम करने के दौरान उन्होंने ये परेशानी पंडित दीनदयाल उपाध्याय को बताई। आडवाणी अपनी जीवनी में लिखते हैं कि दीनदयाल जी ने कहा कि तुम ‘ऑर्गेनाइजर’ में नौकरी कर लो। वह अपना जर्नल है। तुम लेखन में भी अच्छे हो तो तुम्हारा मन भी लग जाएगा। ये वो समय था जब ‘ऑर्गेनाइजर’ की बहुत कम कॉपी बिकती थीं।
आडवाणी लिखते हैं, ‘मैंने 1960 में बतौर सहायक संपादक ऑर्गेनाइजर जॉइन किया। मेरी पहली पगार 350 रुपए महीना थी। ‘ऑर्गेनाइजर’ के संपादक केआर मलकाणी मुझे एक प्रचारक ही नहीं, राजस्थान में ‘ऑर्गेनाइजर’ के संवाददाता के रूप में भी जानते थे।
एक दिन हमारे संपादक ने कहा कि हमारा अखबार नीरस है। इसमें फिल्मों के बारे में होना चाहिए। सवाल उठा सिनेमा कौन लिखेगा? मैंने कहा- मैं लिखूंगा। बचपन से मुझे सिनेमा में दिलचस्पी थी। मैंने सिनेमा पर लिखना शुरू किया।’
लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी (बैठे हुए)। ये वो समय था जब BJP का जन्म नहीं हुआ था, लेकिन भारतीय जनसंघ नाम की पार्टी थी। आडवाणी उसके अध्यक्ष थे।
पहली बार मजबूरी में पार्टी अध्यक्ष बने, कोई दूसरा तैयार नहीं था
भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में एक छोटे से कार्यक्रम में की गई। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय इसके संस्थापकों में थे। 1969 से 1972 तक अटल बिहारी वाजपेयी इसके अध्यक्ष रहे।
1972 की शुरुआत में अटल ने आडवाणी से कहा कि आप पार्टी अध्यक्ष बन जाओ। आडवाणी बोले, ‘मुझे भाषण देना तक नहीं आता है। मैं कैसे अध्यक्ष हो सकता हूं।’ ये वो समय था जो जनता के बीच शानदार भाषण देता था उसे ही प्रभावशाली लीडर माना जाता था।
आडवाणी लिखते हैं, ‘मैं संकोची स्वभाव का था। अटल जी ने जोर देकर कहा, लेकिन अब तो आप संसद में बोलने लगे हैं। फिर संकोच कैसा?’ आडवाणी ने कहा, संसद में बोलना अलग बात है। हजारों लोगों के सामने भाषण देना अलग बात है। इसके अलावा पार्टी में कई वरिष्ठ नेता हैं। उनमें से किसी को पार्टी अध्यक्ष बनाया जा सकता है।
अटल ने पूछा कि आप ही बताइए दूसरा व्यक्ति कौन हो सकता है। आडवाणी ने कहा राजमाता क्यों नहीं? ग्वालियर की विजया राजे सिंधिया को राजमाता के नाम से जाना जाता था। अटल अब आडवाणी के सुझाव से सहमत हो गए। दोनों राजमाता को जनसंघ का अध्यक्ष बनाने के लिए ग्वालियर पहुंचे। काफी मान-मनौव्वल के बाद वो मान गईं।
फिर बोलीं- आपको एक दिन का इंतजार करना होगा। मैं अपने जीवन के हर फैसले अपने आध्यात्मिक गुरु से पूछकर लेती हूं। वे दतिया में रहते थे। उनके आशीर्वाद के बिना ये संभव नहीं होगा। अगले दिन राजमाता दतिया गईं। अटल-आडवाणी की जोड़ी ग्वालियर में ही रुकी। दूसरे दिन लौटकर उन्होंने दुखद खबर सुनाई कि मेरे गुरुजी ने मुझे पार्टी अध्यक्ष बनने की अनुमति नहीं दी है।’
अटल ने फिर आडवाणी से पूछा बताइए अब क्या करें? आडवाणी ने कहा, हम महावीर जी को क्यों नहीं मनाते? प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भाई परमानंद के पुत्र डॉ. भाई महावीर जनसंघ के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और उस समय राज्यसभा के सदस्य थे। अटल जी मान गए।
दोनों जगन्नाथ राव जोशी के साथ महावीर से मिलने दिल्ली के पंत मार्ग स्थित उनके घर गए। बिना किसी अधिक मान-मनौव्वल के वे सहमत हो गए। फिर कुछ देर बाद उन्होंने कहा, एक क्षण प्रतीक्षा करें। मैं इस मामले में अपनी पत्नी से सलाह करना चाहता हूं। वे घर के अंदर गए और कुछ समय बाद लौटे। बोले- मेरी पत्नी इसके लिए सहमत नहीं हैं। अब अटल निराश हो चुके थे और बोले- हम और कोई प्रयास नहीं करेंगे, आपको ही ‘हां’ कहना होगा।’
इस तरह आडवाणी पहली बार पार्टी अध्यक्ष बने। उन्हें दिसंबर 1972 में भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनाया गया और 1977 में जनता पार्टी में विलय तक वही पार्टी अध्यक्ष रहे। जनता पार्टी टूटने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सहित जनसंघ के अन्य नेताओं ने 6 अप्रैल, 1980 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में भारतीय जनता पार्टी के नाम से नई राजनीतिक पार्टी का ऐलान किया। अटल बिहारी वाजपेयी BJP के पहले अध्यक्ष बने।
रथयात्रा जिसने BJP के लिए सत्ता की राहें खोलीं।
अटल की अगुआई में हार मिली, आडवाणी ने कमान संभाली और हिंदुत्व का राग छेड़ा
1980 से 1986 तक अटल बिहारी वाजपेयी BJP के अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल में हुए 1984 के चुनावों में BJP सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई।
RSS पर किताब लिखने वाले एजी नूरानी कहते हैं, ‘1984 के चुनाव में जब BJP को सिर्फ दो सीटें मिली थीं तो आडवाणी बहुत बौखलाए हुए थे। उन्होंने ये तय किया कि पुराने वोट हासिल करने का सिर्फ एक ही तरीका है कि हिंदुत्व को दोबारा जगाया जाए। 1986 में आडवाणी पार्टी अध्यक्ष बने। 1989 में BJP का पालमपुर प्रस्ताव पास हुआ जिसमें आडवाणी ने खुल कर बताया कि मैं उम्मीद करता हूं कि हमारी ये कोशिश वोटों में बदले।’
इसके बाद आडवाणी ने रामजन्मभूमि मुद्दे पर रथयात्रा निकाली। रथयात्रा में 8 मई 1990 से 5 जुलाई 1990 तक 59 दिनों में 45 हजार किलोमीटर की दूरी तय की गई। आजादी के बाद किसी भी राजनीतिक दल का ये सबसे बड़ा जनसंपर्क अभियान था। आडवाणी ने इसमें 770 बड़ी जन सभाओं को संबोधित किया।
इस रथयात्रा में हिंदुत्व पर सवार होकर आडवाणी ने BJP के लिए जबरदस्त समर्थन जुटाया। 1994-95 के आडवाणी को देखें तो वो प्रधानमंत्री के रूप में BJP के स्वाभाविक उम्मीदवार थे। अटल लोकप्रिय जरूर थे, लेकिन पार्टी में बैकड्रॉप में चले गए थे।
हालांकि 12 नवंबर 1995 को मुंबई में BJP के महाधिवेशन में अटल को PM पद का उम्मीदवार घोषित करके आडवाणी ने सबसे चौंका दिया था।
आडवाणी के भाषण के बाद अटल खड़े हुए। उन्होंने माइक थामा। फिर ऐलान किया कि चुनाव के बाद मैं नहीं, आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनेंगे। इसके जवाब में आडवाणी ने कहा कि घोषणा की जा चुकी है। यह BJP के दोनों शीर्ष नेताओं के लिए भावनात्मक पल था, लेकिन उस समय पार्टी के निर्विवादित नेता आडवाणी ऐलान कर चुके थे कि अटल ही लीडर होंगे।
उल्लेख एनपी लिखते हैं कि भाषण के बाद जब अटल और आडवाणी एक साथ बैठे तो भौंहे उठाकर वाजपेयी ने कहा, ‘ये क्या घोषणा कर दी आपने। कम से कम मुझसे एक बार तो बात कर लेते। आडवाणी ने जवाब दिया- अगर मैं आपसे पूछता तो आप मान जाते क्या?’
इस बीच होटल पहुंचकर गोविंदाचार्य ने आडवाणी ने पूछा- आपने ये क्या कर दिया। कम से कम एक बार संघ से तो पूछना चाहिए था। पार्टी की दूसरी लीडरशिप से बात करनी चाहिए थी। आडवाणी ने कहा- अगर वे मना कर देते तो।
गोविंदाचार्य बोले- हमारे पास दूसरा विकल्प भी था। हम अटल जी को रुकने के लिए कह देते, ताकि वे इस भूमिका के लिए और कठिन साधना कर तैयारी कर लेते। इस बार आडवाणी चुप रहे और कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद जब चुनाव हुए तो अटल ही PM पद का चेहरा बने।
रथयात्रा के दौरान हमेशा मोदी, आडवाणी के साथ रहते थे। फोटो एक रेलवे स्टेशन का जहां आडवाणी कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे हैं।
आडवाणी ने अटल को PM उम्मीदवार बनाने का फैसला क्यों किया?
पहली वजह: हवाला कांड में आडवाणी का नाम
1991 में एक छात्र को गिरफ्तार किया गया तो हवाला का कुछ रुपया पकड़ा गया। इसके बाद ये केस CBI को सौंपा गया। छापेमारी में उद्योगपति एसके जैन की एक डायरी मिली जिसमें कई वरिष्ठ सांसदों, मंत्रियों और बड़े अफसरों के नाम थे। ये वो नाम थे, जिन्हें रिश्वत दी गई थी।
उस समय पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी। सुब्रमण्यम स्वामी उनकी सरकार में मंत्री थे। 29 जून, 1993 को सुब्रमण्यम स्वामी ने आरोप लगाया कि रिश्वत की रकम लालकृष्ण आडवाणी को भी दी गई है। फिर मीडिया में भी इस डायरी के हवाले से आडवाणी का नाम छापा गया।
16 जनवरी 1996 को CBI ने चार्जशीट पेश की। इसमें आडवाणी का भी नाम था। उन पर 60 लाख रुपए की रिश्वत लेने का आरोप था। इसके बाद आडवाणी ने तुरंत नैतिकता के आधार पर सांसद पद से इस्तीफा दे दिया। आडवाणी ने 1996 का लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ा। अटल और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने कहा कि आप चुनाव लड़ो, लेकिन आडवाणी अड़े रहे। जब वे कोर्ट से बरी हुए तो 1998 में उपचुनाव लड़कर वापस लोकसभा पहुंचे।
दो दशक से ज्यादा समय से BJP कवर करने वाले पत्रकार दिनेश गुप्ता कहते हैं कि आडवाणी रिश्वत लेने के आरोप से दबाव में थे। उन्हें आशंका थी कि कहीं हवाला कांड में उनका नाम आना वोटर को कांग्रेस की तरफ डायवर्ट न कर दे। आडवाणी ने अपनी मेहनत से रथयात्रा करके भाजपा की पहचान बनाई थी। वोटरों का ध्यान भाजपा की तरफ खींचा था। ऐसे में आडवाणी कभी नहीं चाहते थे कि उनके कारण BJP किनारे आकर डूब जाए। यही कारण था कि उन्होंने अटल को PM पद का उम्मीदवार घोषित किया।