केशरवानी परिवार द्वारा आयोजित शिव महापुराण कथा का छठवां दिवस: गिरी बापू ने किया शिव महिमा का वर्णन

मुंगेली : धर्म नगरी में चल रही श्री शिव महापुराण कथा के छठवें दिन अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कथा वाचक गिरी बापू ने भगवान शिव की अनुपम महिमा का भव्य गायन किया। कथा के दौरान पंडाल शिवमय हो गया और श्रद्धालु शिवभक्ति में पूर्ण रूप से लीन दिखे।

गिरी बापू ने कहा कि जो मनुष्य भगवान शिव के लिंग स्वरूप की श्रद्धा पूर्वक पूजा करता है, उसे जीवन के समस्त दुखों से मुक्ति मिलती है। उन्होंने बताया कि शिव को प्रणाम करने की विशेष विधि है—महादेव को सामने से प्रणाम नहीं करना चाहिए, बल्कि उत्तर की ओर सिर और दक्षिण की ओर पैर कर प्रणाम करना चाहिए। पुरुष शरीर को इस प्रकार प्रणाम करना उचित है, जबकि नारी शरीर को दंडवत प्रणाम नहीं किया जाता।

उन्होंने आगे कहा कि जो पुरुष नारी का सम्मान करता है, वही समाज में महानता प्राप्त करता है। गिरी बापू ने लिंगों की महिमा का वर्णन करते हुए बताया कि पाषाण लिंग, ताम्र लिंग, नर्मदा लिंग, और स्फटिक लिंग विशेष महत्व रखते हैं। उन्होंने बताया कि स्फटिक लिंग को स्वयं भगवान विष्णु ने माता लक्ष्मी को भेंट स्वरूप दिया था। जब माता लक्ष्मी ने महादेव की उपासना की, तभी वे “विष्णुपति महालक्ष्मी” कहलाईं।

गिरी बापू ने कहा कि सोमवार को शिव की विशेष पूजा करने वाले साधकों पर महालक्ष्मी की विशेष कृपा होती है। उन्होंने कहा, “हमारा मूल शिव हैं, और मूल को सुरक्षित रखना है तो शिव को भजना चाहिए।”

कथा में माता-पिता की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया। उन्होंने कहा कि वे माता-पिता धन्य हैं जो अपने बच्चों को शिवभक्ति का संस्कार देते हैं, और कम से कम एक रुद्राक्ष माला उपहार स्वरूप अवश्य दें।

उन्होंने आत्मा को शिव के लिंग स्वरूप से जोड़ा और कहा कि पूरा आकाश शिवलिंग स्वरूप है। राजा दशरथ द्वारा पुत्र प्राप्ति हेतु पार्थिव शिवलिंग की पूजा का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि पार्थिव शिवलिंग से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और अकाल मृत्यु नहीं होती।

विष्णु जी के अपमान से संबंधित चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा कि जो शिवभक्त होकर विष्णु का अपमान करता है, उसे नर्क की प्राप्ति होती है। कथा में केतकी पुष्प की भी चर्चा हुई, जिसे महादेव ने उसके अहंकार के कारण त्याग दिया था।

उन्होंने कहा, “समर्थ को कभी अभिमान नहीं करना चाहिए, हर कदम पर कर्म में सावधानी आवश्यक है, क्योंकि कर्मों की गति मौन होती है।”

कथा के अंत में सती माता के जन्म का वर्णन हुआ, जब राजा दक्ष के यहाँ उनके जन्म पर समस्त देवगणों ने आकाश से पुष्पवर्षा की। समूचा पंडाल इस दिव्य दृश्य और भक्तिभाव से सराबोर हो गया।

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